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अनमोल

कभी जिंदगी लगती है अर्थपूर्ण…
और कभी बिल्कुल अर्थहीन ।
ऐसा क्यों होता है ?
जब सोचता हूँ तो दुख होता है ।।

वक्त के साथ-साथ, क्यों बदलते जाते हैं ?
जिंदगी के मायने..
कभी अपने से प्रतीत होते हैं,
तो कभी बेगाने ।
ऐसा विरोधाभास… आखिर क्यों होता है ?
जो बार बार मन में,
एक भ्रम उत्पन्न करता है ।।

जिंदगी… जन्म और मृत्यु नाम के,
दो स्तम्भों पर खड़ी रहती है ।
और इन्हीं के बीच…
अपना सफर तय करती है ।।

वास्तव में क्या है ये जिंदगी ?
वह…जो एक स्तम्भ से चलकर,
दूसरे पर समाप्त हो जाती है ।
जिसमे निहित हैं अर्थपूर्ण और अर्थहीन शब्द….
पर क्या दो शब्द जिंदगी के लिए आवश्यक हैं ?
सच कहूं तो अपने नजरिये द्वारा,
हम जिंदगी को एक नाम देते हैं ।।

जिस तरह मृत्यु एक कड़वा सच है ।
ठीक उसी तरह यह भी तो एक सच है कि,
जिंदगी तो सिर्फ जिंदगी है ।।
इसमें अर्थपूर्ण और अर्थहीन शब्द का,
कोई औचित्य नहीं..

हमारी सोच ही.. जिंदगी को,
इन दो शब्दों में बाँधने का,
प्रयास करती है ।
यह इन दो शब्दों से कहीं आगे है ।।
यह इतनी छोटी नहीं कि,
जिसे हम सिर्फ दो शब्दों में..बाँध सकें ।
इसका विस्तार तो अनंत है…
इसे किसी भी शब्द में समेटना..असंभव ।।

हम जिंदगी को सिर्फ,
अपने लिये जीना चाहते हैं,
इसलिए अर्थपूर्ण और अर्थहीन के जाल में,
उलझते हैं ।
पर क्या यह संभव नहीं..
कि हम इन दो शब्दों में न उलझे,
और जिंदगी को ऐसा आयाम दें,
जो पूर्णतया औरों को समर्पित हो ।।

जिंदगी तो एक निस्वार्थ सेवा भाव है ।
जो अर्थपूर्ण और अर्थहीन शब्दों से कहीं आगे है ।।
जिसका कोई मोल नहीं,
जो अनमोल है…

– अविचल मिश्र