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अंतर्द्वंद

मस्तिष्क में तैरते हजारों प्रश्न ।
और हर बार की तरह,
आज फिर…
निरुत्तर मेरा मन ॥

अजनबी नहीं वो…
फिर भी,
एक अजीब सी खामोशी ।
बेसुध नहीं मैं…
फिर भी,
दिवास्वप्न सी खुशी ॥

स्वयं से करता हूँ प्रश्न ।
मैं हूँ कौन?
लाख प्रयत्न करूं…
फिर भी,
ये दिल है मौन ॥

कैसा अंतर्द्वंद है ये ?
पागलपन…
दीवानापन…
या फिर,
अपनापन…

कुछ भी हो…
शायद इसलिए ही,
आज मेरा दिल…
धड़कते हुए भी प्रतीत हो रहा है ।
मौन…स्थिर…अज्ञात…॥

– अविचल मिश्र


avichal

By avichal

Avichal Mishra

10 replies on “अंतर्द्वंद”

Another great poetry.

ये पंक्तिया हर आदमी के मनःस्थिति को दर्शाती हैं।

Keep writing 🙂

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