मस्तिष्क में तैरते हजारों प्रश्न ।
और हर बार की तरह,
आज फिर…
निरुत्तर मेरा मन ॥
अजनबी नहीं वो…
फिर भी,
एक अजीब सी खामोशी ।
बेसुध नहीं मैं…
फिर भी,
दिवास्वप्न सी खुशी ॥
स्वयं से करता हूँ प्रश्न ।
मैं हूँ कौन?
लाख प्रयत्न करूं…
फिर भी,
ये दिल है मौन ॥
कैसा अंतर्द्वंद है ये ?
पागलपन…
दीवानापन…
या फिर,
अपनापन…
कुछ भी हो…
शायद इसलिए ही,
आज मेरा दिल…
धड़कते हुए भी प्रतीत हो रहा है ।
मौन…स्थिर…अज्ञात…॥
– अविचल मिश्र
10 replies on “अंतर्द्वंद”
अतिसुंदर…गम्भीर
बहुत-बहुत धन्यवाद दीप्ति :))
Another great poetry.
ये पंक्तिया हर आदमी के मनःस्थिति को दर्शाती हैं।
Keep writing 🙂
बहुत बहुत धन्यवाद विनोद :))
Amazing Kavichal….luvd it…plz keep on forwarding these bloglinks…
Thx a lot Swati for appreciation…will surely provide you link :))
बहुत ही सुंदर अविचल जी
बहुत बहुत आभार अनिषा :))
Badhiya..kafi gambhir hai.worth reading!
Thanks a lot Rahul for appreciation :))