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  • खुलकर जीते हैं…

    चलो…खुलकर जीते हैं ।
    खामोशी से क्या मिलेगा ?
    इन ख्यालों में डूबकर क्या मिलेगा ?
    चलो…खुलकर जीते हैं ।।

    हर पल ये अजीब सी उदासी क्यों ?
    जिंदगी से इतनी बेरुखी क्यों ?
    जीवन को पहचानो…।
    हर पल इसके महत्व को जानो…।।
    ये बार-बार टूटना क्यों ?
    ठेस लगी तो फिर बिखरना क्यों ?

    चलो…खुलकर जीते हैं ।
    आजाद परिंदों की तरह,
    उड़ना सीखते हैं…
    चलो…खुलकर जीते हैं ।।

    कोई नहीं साथ तो क्या हुआ ?
    दिन के उजाले में मत देखो कोई धुआँ ।
    खुद को भ्रमित रखकर क्या मिलेगा ?
    कोसने से तो ये दिल,
    और भी पत्थर होगा ।।
    तंग चेहरा और दबी आवाज से,
    नहीं होगी पहचान ।
    आगे बढ़ो…
    इसी से मिलेगा समस्या का समाधान ।।

    झूठ का आवरण…
    आज निकालकर,
    फेक देते हैं ।
    चलो…खुलकर जीते हैं ।।

    नीले आसमान में बिखरी,
    इंद्रधनुषी छटा ।
    ऊँचे पर्वत से झरने का,
    अपने ही अंदाज में गिरना ।।
    फूलों की खुशबू का,
    मस्तिष्क के हर एक कोने को कैद करना ।
    और फिर धीरे से,
    एक नये अवसर की सुगबुगाहट का होना ।।

    तो क्यों नहीं हम बढ़ सकते हैं उस पथ पर ?
    जहाँ सिर्फ खुशियाँ हों,
    हमारे कर्म की…
    हमारे सद्गुणों की…
    और हमारे सच्चे प्रयास की…

    तो चलो न…
    खुलकर जीते हैं ।
    अपने सारे दु:खों को पीछे छोड़ते हैं,
    एक नयी दुनिया को साकार करते हैं,
    चलो…खुलकर जीते हैं ।।

    – अविचल मिश्र